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ISBN 978-81-925489-2-0 - ramniranjan jhunjhunwala college

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अश्िेतों को बाििुिभ मानते हुए ििंरक्षण और िहायता की मुरा,उन्हें बदनाम करना (मििन ककिी क्जप्िी को<br />

चोर मान िेना,यहूदी को बेईमान या किर अश्िेत को ननकम्मा मानना),ििंहदग्ध मानना (तरह बबना धगने पैिा<br />

खचि करने िािा यहूदी ििंहदग्ध है ,िैिे ही मािंटेस्तयू को उदॎृत करने िािे अश्िेत पर भी ननगाह रखनी<br />

चाहहए),हिंिी उड़ाना(उन्हें या बेढब ियस्कों की तरह हिंिी का पात्र मानना. िै नन ने १९३० और १९४० के दशक<br />

की हािीिुड की किल्मों में अश्िेत घरेिु नौकरों की हिंिी को आििंबन के रूप में पेश करने का क्जक्र ककया<br />

है.)”७ तया कु छ ऐिी ही क्स्थनत हहिंदी लिनेमा में भी थी?यह एक विचारणीय प्रश्न है. अब तो हहिंदी लिनेमा<br />

अपने िमाज िे ही अिगाि का लशकार हो रहा है तो दलितों की क्जिंदगी का दस्तािेज कै िे बन िकता है?<br />

क्जतेन्र वििाररया की उपरोतत स्थापना को अगर आधार बनाया जाय तो यह ििाि विचारणीय हो जाता है कक<br />

आणखर ककि तरह दलित और वपछड़ों को प्रदशिनकारी किाओिं िे बहहष्कृ त कर हदया गया? ऐिा िगता है कक<br />

लिनेमा जैिे-जैिे पैिे और िचिस्ि का माध्यम बनता गया िैिे- िैिे इिमें गरीब और दलित जानतयों का<br />

प्रनतननधधत्ि कम होता गया.और उिी के अनुपात में दलित और ग्रामीण पृष्ठभूलम भी लिनेमा िे गायब होने<br />

िगी.िमकािीन हहिंदी लिनेमा में अधधकािंश किल्मे िरोकारों को ध्यान में रखकर बनती ही नहीिं हैं जो बनती भी<br />

हैं उनके ऊपर भी व्याििानयकता का दबाि इतना होता है कक कथा की यथाथिता ही धूलमि होने िगती है .<br />

लिनेमा के घटते िामाक्जक िरोकार का मुख्या कारण मल्टीप्िेतिों की ििंस्कृ नत का बढ़ना है .अब लिनेमा की<br />

न तो विषय िस्तु ग्रामीण होती है और न ही आने िािी किल्में गरीबों की पहुाँच में होती हैं.अगर कु छ किल्में<br />

बनती भी हैं िामाक्जक िरोकारों या दलित ििािों पर या प्रगनतिादी चेतना पर िे बहुत िारे पहिुओिं का ध्यान<br />

नहीिं रखती हैं.<br />

‘शुर द राइक्जिंग’ किल्म के शीषिक िे ही िगता है की यह उभरते हुए दलित िमुदाय के पीड़ादायक अनुभिों<br />

पर आधाररत है.किल्म मुख्यतः तीन दृश्यों पर के क्न्रत है.यह क्रमशः ब्राह्मण ,क्षबत्रय और िैश्य के द्िारा<br />

दलितों की प्रताड़ना को हदखने का प्रयाि करती है. विषयिस्तु के लिहाज िे यह एक अच्छी किल्म है िेककन<br />

इिकी ऐनतहालिकता को परदे पर उतारने की प्रकक्रया में यह अस्िभाविकता का लशकार हो जाती है. किल्म का<br />

जो गीत है “ एक बेबि के नीर िे पूछो ककतनी पीर है छाती में,तया है उिका दोश तयों जन्मा इि जानत में<br />

....िमाज की दारुण दशा को हदखाती है.दलित आक्रोश को हदखने का प्रयाि भी इिमें है , “ उ पानी पानी न<br />

जो मनई के कम ना आ िके उ मनई के मूत है मूत !”अपनी अस्िभाविकता के बाद भी यह किल्म दलित<br />

मुक्तत –चेतना को उद्द्िेलित करती है. बििंडर में दलित िमाज की िमस्या िे ज्यादे उिके लिए कम करने<br />

िािी ििंस्थाओिं और न्यायपालिका की ब्राह्मणिादी ननलमिती को हदखाया गया है जबकक आरक्षण किल्म में<br />

िामाक्जक –आधथिक वपछड़ेपन को और गैरबराबरी को दूर करने के ििंिैधाननक प्रािधान पर ही प्रहार को हदखाया<br />

गया है .अपनी तमाम कलमयों के बाद भी ये किल्मे दलित िमाज को प्रनतरोध करने की प्रेरणा देती हैं. िेककन<br />

मुख्या धरा की किल्मे अभी भी इन विषयों पर कोई उल्िेखनीय प्रदशिन नहीिं करतीिं . ब्राह्मणिादी मूल्य किल्म<br />

जगत और अन्य ििंस्थाओिं में ककि तरह अभी भी गुथा हुआ है इिका उदहारण अिंग्रेजों के ज़माने में बना हुआ<br />

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