oct2015 hindi (1)
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अल्ाह तआला के नाम से जो बड़ा रहमान और रहीम है और ईमामे ज़माना (अ.स.) की बरकतों से<br />
वर्ष ५ अंक १२ माहे मोहर्रम १४३७ अक्टूबर २०१५<br />
सरपरस्तः हुज्जतुल इस्ाम वल मुस्ेमीन अलहाज आक़ाए सैय्यद मुहम्मद अल-मुस्ी (दा.ज़ज़.)<br />
इस अंक में...<br />
सं पादकीयः सोज़ व शोक.....................................................४<br />
मुख आलेखः<br />
क़यामे हुसैनी (अ.स.).........................................................५<br />
इस्ामी इतिहासः करबला में फ़तह कि सकी और क्ो?...............९<br />
करबलाई अख़लाकः<br />
इमाम हुसैन (अ.स.): नैति क और मानवीय मटूलों के रक्षक......... १०<br />
अकीदाः इमाम हुसैन (अ.स.) का ग़म मनाना अक़ीदे का क़ु दरती<br />
नतीजा है...................................................................... १०<br />
ताकीबातः सटूरों की विशेषताएं ............................................. १५<br />
अहकामः सवाल - जवाब.................................................. १६<br />
हर महीने का तअल्ुक अल्ाह तआला से हैः<br />
माहे मोहर्रम................................................................... १७<br />
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देशी<br />
जाफऱी ऑबज़रवर<br />
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यह ज़रूरी नहीं है कि इस अंक में छपे विचारो से सम्ादक या सरपरस् सहमत हो।<br />
इस अंक में कु रआन की आयात और मासटूमीन (अ.स.) की हदीस को बयान किया<br />
गया है इस लिए इसका आदर करें और इसलामी तरीके से इसका निर्वाह करें।<br />
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जाफ़री अॉबज़रवर 4 अक्टूबर २०१५<br />
सोज व शोक<br />
संपादकीय<br />
ज़की हसन<br />
हयात बख़्श आंसू<br />
सं सार का कण कण मातम कर रहा है। हर आंख गिरयां है।<br />
हर दिल रो रहा है। हर ज़बान फ़रियादी है। नवासए रसटूल<br />
(स.अ.व.व.), दिलबं दे अली व बतटूल (अ.स.)। इमाम हुसैन<br />
(अ.स.) और उनके अहलेबैत (अ.स.) और साथियों के दुख ने<br />
दिल और जिगर को आहत पहुंचाया है। उनकी और उनके साथियों<br />
की मज़लटूमाना शहादत और सैदानियोंऔर छोटे बचोंकी असीरी,<br />
कै द और बं द की तकलीफ़ें , मानवता के शोक का कारण हैं।<br />
लेकिन हाँ यही गिर्या है जो ज़ुल्म न सहने और अन्ाय नहीं<br />
करने का सं देश देता है। यही आंसटू हैं जो दीनदारी के ज़ामिन हैं,<br />
यही आश्क हैं जो मानवता का सं देश देते हैं। इमाम हुसैन (अ.स.)<br />
की याद, स्भाव और चरित्र का वह कें द्र है जो कौमों के भाग्य<br />
बदल कर उन्ें एक सभ्य और बाशरफ जनजाति बना देती है। यह<br />
ज़िक्र अपने ज़ाकिर की चर्चा को अनंत काल अता करता है। और<br />
दम तोड़ती मानवता को नौजीवन देता है। बातिल जं ़ ज़ीरों में जकड़ी<br />
आदमियत को आज़ादी की सांस यही चर्चा दिलाता है। इसीलिए<br />
यह ज़िक्र अल्ाह को पसं द है और अपने विशेष बं दों को अता<br />
फ़रमाता है। इमाम साकदक़ (अ.स.) ने फ़रमाया:<br />
जब अल्ाह किसी को अच्ाई प्रदान करना चाहता है तो<br />
उसके दिल में हुसैन (अ.स.) की मोहब्बत करार देता है।<br />
(कामिलुज़ जि़ यारात, पृ. १४२)<br />
यही वह ज़िक्र है जो घटना घटित होने के बाद ही नहीं बल्कि<br />
पहले से ही खास व आम की ज़बान पर रहा और खासाने खुदा ने<br />
याद करके आंसटू बहाए। जनाबे आदम (अ.स.) से शुरू होने वाली<br />
दुनिया का कोई पल इमाम हुसैन (अ.स.) के गिर्या से खाली नहीं<br />
रहा और इख्ेतामे आम भी इसी गिर्या के साथ होने वाला है।<br />
हमारा सलाम मक़्तले इश्क़ के शहसवार इमाम हुसैन (अ.स.)<br />
को और सांत्वना वारिसे हुसैन इमाम महदी (अ.त.फ.श.) की सेवा<br />
में। जिनकी अज़ादारी पर सभी अज़ादारों की अज़ा क़ु रबान और<br />
जिनके गिर्या पर कु ल ब्रहांड का गिर्या निसार।<br />
बाकी सफह न. ८ पर<br />
ए शबीब के बेटे! मुहर्रम वह महीना है जब जाहिलियत के दिनों के युग के<br />
लोग भी इस महीने की पवित्रता में जुल्म व खून बहाने से परहेज करते थे।<br />
मगर इस कौम ने न तो इस महीने की पवित्रता का ही कोई ध्ान रखा और<br />
न ही उनों नने अपने नबी की इज़्ज़त और पवित्रता का कोई विचार किया।<br />
इस महीने में उनों नने अपने रसूल की ऑल की हत्ा की, उनकी महिलाओं<br />
को कै द किया और उनके माल असबाब को लूटा। अल्ाह कभी भी उनके<br />
अपराधों को माफ़ नहीं करेगा।
अक्टूबर २०१५ 5 जाफ़री अॉबज़रवर<br />
JA’FARI<br />
OBSERVER<br />
रु. १०/- मार्च.... अंक....<br />
मुख आलेख<br />
दर राहे हक़ अनुवादः मौलाना सैययद अहमद अली आबिदी<br />
क़यामे हुसैनी (अ.स.)<br />
माेआविया के बाद यज़ीद इस्ामी शासन के सिंहासन पर<br />
बैठा, और अपने को अमीरुल मोमनीन का उपनाम दिया। अपनी<br />
गलत और क्रटू र सरकार को स्थिर करने के लिए इस्ाम की नामी<br />
हस्तियों के पास सं देश भेजा और उनसे बैअत की मांग की। इसी<br />
उद्ेश्य से एक पत्र हाकिमे मदीना को लिखा और इस बात की ओर<br />
ध्ान दिलाया कि इमाम हुसैन (अ.स.) से भी बैअत ली जाए और<br />
यदि वह बैअत से इंकार करें तो उन्ें मार दिया जाए - हाकिमे<br />
मदीना ने यह खबर इमाम हुसैन (अ.स.) तक पहुँचा दी और उत्तर<br />
की मांग की।<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया:<br />
‘ जिस समय इस्ामी हुकटू मत की गद्ी पर यज़ीद जैसे<br />
(शराबी, अपमानित, जुआरी, अशुद्ध जो ऊपरी तौर पर<br />
भी इस्ाम का पालन नहीं करता) व्यक्ति विराजमान हो<br />
जाएं , तब इस्ाम का बस भगवान ही हिफ़ाज़त करने<br />
वाला - (क्ोंकि ये लोग इस्ाम की शक्ति से इस्ाम का<br />
गला कांटेंगे और इस्ाम को नाश कर देंगे) ’<br />
(मक़्तले ख्ारज़मी, जि. १, पृ. १८४, लुहूफ़, पृ. २०)<br />
जब इमाम हुसैन (अ.स.) ने यज़ीद की हुकटू मत स्ीकार नहीं<br />
की उसी समय उन्ें इस बात का अंदाज़ा हो गया कि अब मदीना में<br />
रहना उचित नहींहै, किसी भी समय आप को मार डाला जा सकता<br />
है, इसलिए खुदा के आदेश से रात के सन्ाटे में मदीना से मक्ा की<br />
यात्रा की। यह खबर कटू फ़ा भी पहुंची, कटू फ़ा वालों ने इमाम हुसैन<br />
(अ.स.) को कटू फ़ा आमं त्रित किया कि कटू फ़ा तशरीफ़ लाकर हमारी<br />
रहबरी करें। इमाम हुसैन (अ.स.) ने अपने चचेरे भाई हज़रत<br />
मुस्लिम बिन अक़ील को अपना प्रतिनिधि बनाकर कटू फ़ा भेजा<br />
ताकि वहाँ लोगों की भावनाअें मालटूम हो सकें और वहां के हालात<br />
का सही अंदाज़ा हो सके ।<br />
हज़रत मुस्लिम (अ.स.) कटू फ़ा आए। यहाँ एक अनोखा और<br />
बे नज़ीर स्ागत किया गया। हजारों लोगों ने नायबे इमाम समझ<br />
कर आप के हाथों पर बैअत की। जनाबे मुस्लिम (अ.स.) इमाम<br />
हुसैन (अ.स.) को पत्र लिखा और तुरंत कटू फ़ा आने का अनुरोध<br />
किया।<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) कटू फ़ा वालों को खटूब पहचानते थे। उनकी<br />
बेवफाई, अधर्म, अपने पिदर और अपने भाई के जमाने में देख<br />
चुके थे। वे जानते थे कि उनकी निष्ा और उनके क़ौल का कोई<br />
भरोसा नहीं है। लेकिन खुदा के अहकाम को लागटू करने और<br />
हुज्जत तमाम करने के लिये इमाम हुसैन (अ.स.) ने कटू फ़े का इरादा<br />
किया।<br />
८ ज़ीलहजह - जिस दिन सभी लोग मिना जा रहे थे1 और जो<br />
लोग रास्े में थे वे जल्ी-जल्ी अपने आप को मक्ा पहुंचा रहे थे।<br />
इस दिन इमाम हुसैन (अ.स.) मक्ा ही में रहे और अपने अहलेबैत<br />
और अंसार के साथ मक्ा से इराक के लिए रवाना हो गए। अपनी<br />
जि़ म्मेदारी का पालन करते हुए दुनिया के सभी मुसलमानों पर स्पष्ट<br />
कर दिया कि फ़रज़न्े रसटूल (स.अ.व.व.) ने यज़ीद की हुकटू मत<br />
स्ीकार नहीं की बल्कि इसके खि़ लाफ़ आवाज़ उठाई है।<br />
हज़रते मुस्लिम (अ.स.) के सं बं ध में यज़ीद को खबर मिल<br />
चुकी थी कि कटू फ़ा वालों ने उनके हाथ पर बैअत की है। यज़ीद ने<br />
इब्े ज़ियाद (यज़ीद का सबसे खराब साथी और हुकटू मते बनी<br />
उमय्या का कट्टरपक्षपाती) को कटू फ़ा रवाना किया।<br />
इब्े ज़ियाद ने कटू फ़े वालों की ईमानी कमजोरी, दोहरेपन, भय,<br />
और अभद्रता से लाभ उठाया और उन्ें डरा-धमका कर जनाबे<br />
मुस्लिम (अ.स.) से दूर कर दिया। जनाबे मुस्लिम (अ.स.) अके ले<br />
१ ८ ज़िल्हज्ज को मुस्हब है कि हाजी मिना जाएं । उस ज़माने में<br />
आम तौर से इस हुक्म पर अमल किया जाता था मगर आजकल<br />
आम तौर से ८ ज़िल्हज्ज को सीधे अरफ़ात ही जाते हैं।
जाफ़री अॉबज़रवर 6 अक्टूबर २०१५<br />
ही इब्े ज़ाद और उसके तरफ़दारों से लोहा लिया, बहादुरी और<br />
दिलावरी से युद्ध करते हुए शहादत के महान स्थिति पर फ़ाएज़ हुए।<br />
(खुदा का सलाम हो उन पर)<br />
इब्े ज़ियाद ने कटू फ़े के बिन धर्म, कपटी और कपटी समाज को<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) के खि़ लाफ़ उकसाया। और बात यहाँ तक<br />
पहुँची कि जिन लोगों ने खत लिख कर इमाम हुसैन (अ.स.) को<br />
कटू फ़ा बुलाया था वही सशस्त्र होकर इमाम हुसैन (अ.स.) के आने<br />
का इंतेज़ार करने लगे ताकि आते ही उन्ें मार दिया जाए।<br />
जब इमाम हुसैन (अ.स.) मदीना से मक्ा जा रहे थे और जब<br />
तक मक्ा में रहे, मक्ा से कटू फ़ा, कटू फ़ा से करबला जाते समय बल्कि<br />
शहादत तक कभी विस्ृत और कभी खुलमखुल्ा यह घोषणा<br />
करते रहे कि मेरी थिापना का उद्ेश्य यज़ीद की इस्ाम विरोधी<br />
हुकटू मत का अनादर करना है। और नेकियों की दावत देना, बुराइयों<br />
से रोकना, उत्ीड़न के खिलाफ़ आवाज़ उठाना, कु र्आन का समर्थन<br />
और दीने मोहम्मद का पुनरुद्धार है।<br />
यह वह जि़ म्मेदारी थी कि खुदा ने उन्ें सौंपी थी हालांकि इस<br />
काम में अपना और अपने अज़ीज़ों और दोस्ों की शहादत और<br />
अपने अहले हरम की कै द क्ों न उठाना पड़े।<br />
रसटूल खुदा (स.अ.व.व.), अमीरुल मोअमेनीन इमाम अली<br />
(अ.स.), इमाम हसन (अ.स.) और इस्ाम के सभी पिछले रहबरों<br />
ने कई बार इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत की खबर दी थी, यहाँ<br />
तक कि इमाम हुसैन (अ.स.) के जन्म के समय मुर्सले आज़म<br />
(स.अ.व.व.) ने इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत की खबर सुनाई<br />
थी 1 इमाम हुसैन (अ.स.) भी इल्मे इमामत से जानते थे कि यह<br />
यात्रा शहादत पर समाप्त होगी। इमाम हुसैन (अ.स.) ऐसे न थे जो<br />
खुदा के आदेश के आगे अपनी जान की कोई कीमत समझते हों,<br />
या अपने अहले हरम की कै द से डरे हों - इमाम हुसैन (अ.स.) वे<br />
थे जो बला का पुण्य और शहादत को सआदत समझते थे - (खुदा<br />
का अनन्त सलाम हो उन पर)<br />
करबला के मैदान में इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत की<br />
खबर इस्ामी समुदाय में इतनी आम हो चुकी थी कि आम लोग<br />
भी सफ़र के प्रदर्शन से परिचित थे। क्ोंकि लोगों ने कई बार<br />
रसटूलल्ाह (स.अ.व.व.), अमीरुल मोअमेनीन (अ.स.), इमाम<br />
हसन (अ.स.) और सद्रे इस्ाम के प्रमुखों से इमाम हुसैन (अ.स.)<br />
१ कामिलुज़ ज़ियारात, पृ. ६८, मसीरुल अहज़ान, पृ. ९<br />
की शहादत की खबर सुनी थी।<br />
इस आधार पर दुख और मुसीबतों से भरपटूर इमाम हुसैन<br />
(अ.स.) की यह यात्रा लोगों के मन में शहादत की खबर को बार<br />
बार दोहरा रही थी। यात्रा के दौरान इमाम हुसैन (अ.स.) का बार<br />
बार यह फ़रमाना इस आशं का को मज़बटूत कर रहा था कि<br />
जो हमारे रास्े में जान कु र्बान कर सकता हो और खुदा से<br />
भेंट करने को तैयार हो वह हमारे साथ आए।<br />
(लुहूफ़, पृ. ५३)<br />
इस आधार पर कु छ लोगों के मन में यह विचार पैदा हुआ कि<br />
वह इमाम हुसैन (अ.स.) को इस यात्रा से रोक लें।<br />
वे इस बात से अनजान थे कि अली (अ.स.) का पुत्र इमाम<br />
और पैगम्बर मोहम्मद (स.अ.व.व.) के उत्तराधिकारी है वह दूसरों<br />
से अधिकांश अपनी जि़ म्मेदारियोंको समझते है, और जो जि़ म्मेदारी<br />
खुदा ने उन्ें सौंपी है वह उस में ज़रा भी कोताही नहीं करेंगे।<br />
तरह तरह के विचारों और सुझावों के बावजटूद इमाम हुसैन<br />
(अ.स.) अपनी राह पर दृढ़ रहे और लोगों की बातें जरा भी उनके<br />
इरादे में तज़ल्ुल पैदा न कर सकीं।<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) ने यात्रा जारी रखी, और हंसी खुशी<br />
शहादत स्ीकार की, अके ले नहीं बल्कि अपने उन मददगारों के<br />
साथ, जिनमें से प्रत्ेक इस्ाम के क्क्षतिज का अनुरशनदा सितारा<br />
था उन शहीदों के खटून ने करबला के रेगिस्ान को लाला ज़ार बना<br />
दिया, और ममल्ते इस्ामिया को बता दिया कि यज़ीद (बनी<br />
उमय्या के दूषित तबस्रोंका सारांश) खुदा के रसटूल का उत्तराधिकारी<br />
नहीं है। न इस्ाम बनी उमय्या से कोई रब्त है और न बनी उमय्या<br />
को इस्ाम से तनिक सहानुभटूति है। दोनों एक दूसरे से तबकिु ल<br />
अलग हैं।<br />
कभी आपने इस बात पर विचार किया है कि अगर इमाम<br />
हुसैन (अ.स.) की जानगुदाज़ और क्रांति आफ़रीन शहादत न<br />
होती तो सब लोग यज़ीद को रसटूले खुदा (स.अ.व.व.) का<br />
उत्तराधिकारी स्ीकार कर लेते। इसके बाद जब यज़ीद परिरक्षण,<br />
व्यक्भरार, व्यक्भरारी कर्म और अधर्म की खबरें में दुनिया में<br />
फ़ै लातीं उस समय दूसरे लोग इस्ाम से कितना नफ़रत और<br />
मुसलमानों को किस निगाह से देखते, क्ोंकि वह इस्ाम जहां<br />
पैगम्बर का जानशीन यज़ीद हो वह वास्व में नफ़रत सक्षम है।<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत के बाद इमाम हुसैन (अ.स.)
अक्टूबर २०१५ 7 जाफ़री अॉबज़रवर<br />
के अहले हरम भी बं दी हुए ताकि गवाही के सं देश का प्रसार कर<br />
सकें , हमने सुना और पढ़ा है कि शहरों में, बाजारों में और मस्जिदों<br />
में, इब्े ज़ियाद के दूषित दरबार में, यज़ीद के नापाक दरबार में, हर<br />
जगह उन बं दिओ ने भाषण किए और यज़ीद के चेहरे को उजागर<br />
किया। बनी उमय्या के परिवार के चेहरे पर जो मनभावन और<br />
धोखे की नकाब पड़ी थी उसे चाक चाक कर दिया, और बता दिया<br />
कि यज़ीद (शराब पीने वाला, अपमानित, जुआरी, अय्याश, दुष्ट)<br />
इस योग्य नहीं है कि उसको रसटूले खुदा (स.अ.व.व.) का खलीफ़ा<br />
समझा जाए और जो सिंहासन पर वह बैठा है वह अपनी जगह नहीं<br />
है। बं दिओं के भाषणों ने शहादत के लक्ष्य को आम और पटूण्र कर<br />
दिया, और िदलो दिमाग में ऐसी क्रांति पैदा कर दी कि नामे यज़ीद<br />
पसतियों, रज़ालतों और बुराइयों का सं ग्रह बन गया। यज़ीद की<br />
सारी शैतानी तमन्ाएं पानी पर छवि कि तरह हो गईं। शहादते<br />
हुसैनी के सभी पहलुओंकी समीक्षा के लिए बड़ी गहरी और व्यापक<br />
दृष्टि की जरूरत है।<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत से आज तक इमाम हुसैन<br />
(अ.स.) के क्शया और दोस् और वह सभी जो मनुष्य की गरिमा<br />
और शालीनता के कायल हैं वे हर साल, हर जगह, आशटूर के दिन<br />
मातमी लिबास पहन कर शहादते हुसैनी और इन्े लाबे हुसैनी की<br />
याद ताज़ा करते हुए लक्षे हुसैनी के अस्तित्व की घोषणा करते हैं।<br />
हमारे मासटूम और भविष्य के रहबरों ने कर्बला की घटना की<br />
याद मनाने पर काफ़ी ज़ोर दिया है। खुद भी बराबर ज़ियारत को<br />
तशरीफ़ ले जाते और अज़ाए हुसैन (अ.स.) बरपा करते थे शोक<br />
सं तप्त और अज़ादारी के बाब में फ़ज़ीलत की बहुत सी हदीसें<br />
इरशाद फ़रमाई हैं।<br />
अबटू अमारा का बयान है कि मैं एक दिन हज़रते साकदक़<br />
आले मुहम्मद (अ.स.) की सेवा में हाज़िर हुआ। आप<br />
(अ.स.) ने कहातः मसाएबे हुसैनी के कु छ शेर सुनाओ। जब<br />
मैं ने शेर सुनाए तो इमाम (अ.स.) के रोने की आवाज<br />
बुलंद हो गई। मैं सुनाता जा रहा था और इमाम (अ.स.)<br />
लगातार रो रहे थे। यहां तक कि घर से भी रोने की आवाज़<br />
आने लगीं - जब मैं शेर सुना चुका तब इमाम (अ.स.) ने<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) पर शेर कहने वालों और रुलाने वालों<br />
के सवाब में हदीस बयान फ़रमाई।<br />
(कामिलुज़ ज़ियारा, पृ. १०५)<br />
خ<br />
خ<br />
हज़रत साकदक़ आले मुहम्मद (अ.स.) से रिवायत है कि:<br />
‘किसी भी मुसीबतो गम में रोना और बेचैन होना सज़ावार<br />
नहीं है मगर इमाम हुसैन (अ.स.) की परेशानी और दुख<br />
में रोना और बेचैन होने में बड़ा और अपार इनाम है। ’<br />
(कामिलुज़ ज़ियारा, पृ. १०१)<br />
हज़रत इमाम मुहम्मद बाकक़र (अ.स.) अपने अज़ीमुल<br />
क़द्र और जलील मनज़ेलत वाले सहाबी मुहम्मद बिन<br />
मुस्लिम से इरशाद फ़रमाया कि<br />
‘ हमारे क्शओंसे कह दो कि वह कब्रे इमाम हुसैन (अ.स.)<br />
की ज़ियारत करें क्ोंकि वह हर साहेबे इमान जो हमारी<br />
इमामत और रहबरी की प्रशं सक है उस पर आवश्यक है<br />
कि वह इमाम हुसैन (अ.स.) की कब्रे अतहर की ज़ियारत<br />
करे। ’<br />
(कामिलुज़ ज़ियारा, पृ. १२१)<br />
हज़रत इमाम जाफ़र साकदक़ (अ.स.) से रिवायत है कि:<br />
‘वास्व में इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत सभी<br />
पसं दीदा काययों में सबसे बाफ़ज़ीलत है।’<br />
(कामिलुज़ ज़ियारा, पृ. १४७)<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत एक महान दर्सगाह है<br />
जहाँ से दुनिया वालों को विश्ास और नेक कामों का पाठ<br />
मिलता है। यह जि़ यारत मनुष्य की आत्ा को नेकियों और<br />
अच्ाइयों, पाक दामनीअों और फ़िदाकारियों की मेराज<br />
प्रदान करती है।<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) की अज़ादारी, उन पर रोना, उनकी<br />
ज़ियारत, कर्बला के इन्े लाब वाली घटना की याद में बड़ी ही क़द्र<br />
और क़ीमत शामिल हैं। लेकिन के वल ज़ियारत और विलाप पर<br />
सं तोष नहीं करना चाहिए, क्ोंकि ये सारी बातें दिव्य कानटून और<br />
दीने इस्ाम का समर्थन और सुरक्षा आकर्षत करती हैं। इन बातों<br />
का मुख्य उद्ेश्य धर्म की रक्षा। इमाम हुसैन (अ.स.) की दर्सगाह से<br />
हमें सही मानव चरित्र और इलाहीयत का पाठ मिलना चाहिए और<br />
अगर हमने सिर्फ दिखावे पर सं तोष किया तो हमने लक्षे हुसैनी को<br />
भुला दिया।<br />
خ<br />
خ<br />
خ
जाफ़री अॉबज़रवर 8 अक्टूबर २०१५<br />
सफह नं. ४ का बाकी<br />
मिना क़ु बा्रनगाह या क़त्लगाह!<br />
इस साल एक बार फिर मैदाने मिनी में रमीए जमरह के अवसर<br />
पर हज़ारों हाजियों को अपनी जान की भेंट देनी पड़ी। एहराम<br />
पहने हाजियों को सरज़मीने वही पर सऊदी अधिकारियों की बद<br />
प्रशासनिक एवं अक्भमान और अहंकार में डटूबे हुए शहज़ादों के<br />
लिए किए जाने वाले वीआईपी व्यवथिा की भेट चढ़ना पड़ा। अपने<br />
को दूसरों से बेहतर समझने वाले लेकिन असलियत में दूसरों से<br />
कहीं कम लोगों के लिए मेज़बानी के सिद्धांतों को तिलांजलि रखते<br />
हुए दुसरे मनुष्य को कब तक कु र्बान किया जाता रहेगा? कब तक<br />
‘‘भगदड़’’ की आड़ में बेगुनाहोंके खटून की होली खेली जाती रहेगी?<br />
क्ा अब समय नहीं आ गया है कि बार बार की बदइंतेज़ामी के<br />
मद्ेनजर हज प्रबं धन मामलों के लिए जि़ म्मेदार सरकार से यह<br />
जि़ म्मेदारी ले कर किसी अंतरराष्ट्ीय और बयनुल मस्की समिति<br />
को आवंटित कर दिया जाए ताकि अल्ाह के घर की ज़ियारत के<br />
लिए जाने वाले मोमिनों और मुसलेमीन की जान-माल की रक्षा हो<br />
सके और वह समिति हज के सं स्ार को बेहतर रूप से आयोजित<br />
करा सके । इस प्रकार खुदावंदे मुतआल के घर की ज़ियारत के लिए<br />
दूरदराज़ के क्षेत्रों से सख्तियां सहन करके आने वाले यात्रियों को<br />
असहज और चिन्ता से मुक्ति दिलाई जा सके ताकि यह सब सं स्ार<br />
हज को शांति की छाया में आराम हृदय के साथ अंजाम दे सकें इस<br />
तरह शायद उन माताओं और विधवाओं, अनाथों की आँखों से<br />
आँसटू पोछें जा सकें जिनके प्रिय मैदाने मिना में कु र्बान हो गए। इस<br />
सं बं ध में हमें यह घोषणा करते हुए कोई सं कोच नहीं है कि बड़े से<br />
बड़ी सभा का बहुसनो खटूबी इन्तेज़ाम करने में मोहिब्बाने अहलेबैत<br />
(अ.स.) से बेहतर कोई नहीं है। हमारे इस दावे की वैसे तो कई<br />
दलीलें हैं लेकिन यह दलील हर साहिबे न्ाय स्ीकार करेगा कि<br />
जिस दिन मैदाने मिना में यह त्रासदी हुई उसी दिन दुनिया में एक<br />
थिान पर मिना से कहीं अधिक भीड़ थी जिसकी सं ख्या २ करोड़<br />
तक बयान की जाती है। यह महान सभा इराक के पवित्र शहर<br />
करबलाए मोअल्ा में हुई थी। यही नहीं बल्कि इतनी बड़ी सं ख्या<br />
में एकत्रित होने वाले ज़ाएरीन की सं ख्या वर्ष के ४ मौकों पर दिखाई<br />
देती है और अरबईने हुसैनी (अ.स.) के मौके पर तो लगभग तीन<br />
करोड़ ज़ाएर जमा होते हैं। ठीक इसी तरह अरबईन के अगले<br />
सप्ताह लगभग उतना ही बड़ा मजमा ईरान के शहर मशहद में<br />
आठवें इमाम (अ.स.) की शहादत के अवसर पर होता है मगर<br />
बेहम्दिल्ल्ाह न कोई भगदड़, की खबर होती है, न बद इन्तेज़ामी<br />
का कोई क्शकवा करता है, और न पानी की कमी और आहार की<br />
आपटूर्त में कमी का गिला होता है। इसका मतलब है खानदाने<br />
अहलेबैत (अ.स.) के प्रेम व विलायत की चत्र छाया में परवान<br />
चढ़ने वाली कौम प्रशासनिक मामलों में शेष सं युति विशेष कर<br />
तथाकथित खादेमुल हरमैन और हाजियों के खटून पसीने की कमाई<br />
से शानदार बज़म सजाने वाली ज़ालिम व जाबिर अाले सऊद से<br />
कहीं बेहतर ही नहीं बल्कि ज़ादा हकदार है। लेकिन हम अपनी<br />
इस सफलता का कारण हुसने इंतेज़ाम से अधिक आथिा के आधार<br />
पर अल्ाह से मिलने वाली ताकत को समझते हैं। और इस पर<br />
बारगाहे रब्बुल इज़्ज़त में आभारी हैं। आलमे इस्ाम को जागरूक<br />
होकर सरज़मीने वही को, जो सभी मुसलमानों की सं युति विरासत<br />
है, नज्द के लुटेरों और ‘‘अय्याशों’’ से निजात दिलानी चाहिए और<br />
इसे सही इस्ाम और आथिा का कें द्र बनाने के लिए उन्ें जिम्मेदारी<br />
दी जाए जिनके सीनों में इश्के रसटूल (स.अ.व.व.) व आले रसटूल<br />
(अ.स.) के साथ कु रानी तजल्लियाँ हैं ताकि एक दिन जब इसी<br />
धरती से वारिसे काबा व मक्ा और मिना हज़रत बकीयतुल्ाकहल<br />
आज़म इमाम महदी (अ.त.फ.श.) का ज़ुहूरे पुर नटूर हो तो दुनिया<br />
कहे अब तक खादिमाने इमाम (अ.स.) मह्े इंतेज़ाम थे अब दीन<br />
के मटूल वारिस का आगमन है जिनकी हुकटू मत ज़मीन को न्ाय से<br />
भरने वाली है।<br />
खुदावंदे आलम वह दिन जल्ी लाए और हमारे अक्भभावक<br />
व वारिस आक़ाओ मौला (अ.त.फ.श.) के ज़ुहूर में ताजील हो।<br />
आमीन।<br />
सफह नं. १६ का बाकी<br />
ज. एहतियाते वाजिब यह है कि अगर यह जानता है कि महिला<br />
बेहया नहीं है तो उसकी तस्ीर न देखे हां चेहरा और दोनों<br />
हाथों की हथेलियाें के लिए इस आदेश में छटू ट दी गई है<br />
इसलिए शहवत की दृष्टि के बिना तस्ीर देख सकता है<br />
एहतियाते वाजिब यह भी है कि बे पर्दा फोटो न देखे।
अक्टूबर २०१५ 9 जाफ़री अॉबज़रवर<br />
करबला में फ़तह किसकी और क्ो?<br />
दुनिया में जो साहिबे अ़ क्ल भी कोई अमल अंजाम देता है तो<br />
उस का कोई न कोई मक़सद होता है और मक़सद के ऐतेबार से<br />
कामयाबी न नाकामी का फ़ै सला होता है। अमल के दौरान पेश<br />
आने वाले हालात व कै फ़ियात न कामयाबी की अलामत हैं और न<br />
नाकामी की।<br />
एक काश्तकार अपने काम का आग़ाज़ करता है तो सब से<br />
पहले ज़मीन की हालत खराब होती है। उस के बाद वह उस में दाना<br />
डालता है, दाना खाक में मिल जाता है फिर ज़मीन पर बहने वाला<br />
साफ़ व शफ़्ाफ़ पानी खाक में जज़ब हो जाता है। उस के बाद<br />
फ़सल को सहारा देने वाला कीमयावी माद्ा ज़ेरे ज़मीन गुम हो<br />
जाता है,तब कहीं ज़राअत का अमल मुकम्मल होता है। जिस में<br />
ज़ाहिरी तबाही व बर्बादी के सिवा कु छ भी नही है लेकिन जब चार<br />
महीने ग़ुज़रने के बाद लहलहाता हुआ खेत सामने आता है तो सब<br />
यही कहते हैं कि किसान अपने अमल में कामयाब है। किसी ने उस<br />
की कामयाबी पर यह ऐतेराज़ नही किया कि दाना बर्बाद हो गया,<br />
पानी जज़ब हो गया, खाद का पता नही चला, इस लिये कि कामयाबी<br />
का फ़ै सला नतीजे के ऐतेबार से होता है। हालात व मुक़द्ेमात के<br />
ऐतेबार से नही। मक़सद हासिल हो गया तो इंसान हज़ार मसायब<br />
के बा वजटूद कामयाब है और अगर मक़सद हासिल नही हो सका<br />
तो इंसान लाखों राहतों के बा वजटूद नाकाम है।<br />
इस बुनियाद पर यह फ़ै सला करना आसान है कि करबला के<br />
मारके में फ़ातेह कौन है और क्शकस् खुरदा कौन? दोनो फ़रीक़ै न<br />
का मक़सद देखना होगा और फिर मुक़द्ेमात के हुसटूल व अदमे<br />
हुसटूल का जायज़ा लेना होगा। इमाम हुसैन अलैहिस सलाम की<br />
निगाह में दुनिया का कोई आराम न था, उन्ोने मसायब का रास्ा<br />
इख़्तियार किया था और अपने क़त्ल की पेक्शनगोई कर दी थी।<br />
उस के बर खखलाफ़ यज़ीद हुकटू मत चाहता था और दीने मुहम्मदी<br />
इसलामी इतिहास<br />
सैयद बहादुर अली ज़ैदी<br />
(स.अ.व.व.) को खेल तमाशा कह रहा था।<br />
अब इमाम हुसैन (अ.स.) और यज़ीद का मअरेका सिर्फ़ इस<br />
मरहले पर था कि दीन बाक़ी रहे या मिट जाये, रिसालत की हक़ीक़त<br />
व वाक़े ईयत साबित हो या बनी हाक्शम का खेल तमाशा साबित हो<br />
जाये। यज़ीद ने सारा ज़ोर सर्फ़ कर दिया कि रिसालत तमाशा बना<br />
जाये, दीन फ़ना हो जाये और अबटू सुफ़यानके क़ौल के मुतातबक़<br />
यह ग़ेद बनी उमय्या के गिर्द नाचती रहे।<br />
जब कि इमाम हुसैन (अ.स.) का सारा जिहाद इस मक़सद के<br />
लिये था कि दीने इलाही बाक़ी रह जाये। रिसालत का वक़ार ज़िन्ा<br />
रहे। इस्ाम की आबरू ज़ाया न होने पाये। चाहे इस राह में मेरा<br />
लाश पामाल हो जाये और मेरा भरा घर उज़ड़ जाये। इन हालात में<br />
नतीजा तबकिु ल सामने है अगर यज़ीद इंकारे रिसालत में कामयाब<br />
हो जाये तो मआज़ अल्ाह इमाम हुसैन (अ.स.) अपने मक़सद में<br />
कामयाब न हुए लेकिन अगर यज़ीद खुद ही इमाम ज़ैनुल आबेदीन<br />
(अ.स.) के खुतबे को क़ता कर करने के लिये ऐलान कराये कि<br />
अशहदो अन्ा मुहम्मदन रसटूलुल्ाह तो यह बात इस की दलील है<br />
कि यज़ीद ने अपनी क्शकस् का ऐतेराफ़ कर लिया और इमाम<br />
हुसैन (अ.स.) ने करबला के बाद शाम का मअरेका भी फ़तह कर<br />
लिया।<br />
अगर यज़ीद शराब व बदकारी व अय्यारी को मज़हब में रवा<br />
रख सके तो वह अपने मक़सद में कामयाब है और इमाम हुसैन<br />
(अ.स.) की क़ु बा्रनी ज़ाया हो गई और अगर यज़ीद की हिमायत<br />
करने वाले भी शराब व बदकारी को बुरा और हराम कह रहे हैं तो<br />
यह अलामत है कि इमाम हुसैन (अ.स.) कामयाब और यज़ीद<br />
नाकाम हो गया।<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) की उसटूली कामयाबी के बाद हालाते<br />
ज़माना का जायज़ा लिया जाये तो हर दौर के हालात इमाम हुसैन<br />
बाकी सफह न. १८ पर
जाफ़री अॉबज़रवर 10 अक्टूबर २०१५<br />
करबलाई अख़लाक़<br />
मौलाना सैयद सईद हसन नकवी<br />
इमाम हुसैन (अ.स.): नैतिक और मानवीय मूलों<br />
के रक्षक<br />
इस्ाम ने मानव और नैतिक मटूलों पर जितना ज़ोर दिया है<br />
वह किसी और धर्म में नज़र नहींआता। रसटूले इस्ाम (स.अ.व.व.)<br />
ने अपनी बेअसत का उद्ेश्य ही मकारेमुल अखलाक बताया है।<br />
कु रान ने पैगम्बर (स.अ.व.व.) को नैतिक मानकों पर खरा उतरने<br />
वाला व्यक्ति बताया और इस सं बं ध में उन्ें इन्क लअला<br />
खोलोकिल अज़ीम के लक़ब से सम्मानित किया है। रसटूले इस्ाम<br />
(स.अ.व.व.) २७ रजब को मकारेमुल अखलाक के लिए भेजे गए<br />
हैं। नबी अकरम (स.अ.व.व.) ने न सिर्फ़ यह की मकारेमुल<br />
अखलाक की क्शक्षा दीं, बल्कि मकारेमुल अखलाक के सचे नमटूनों<br />
से लोगों को परिचित कराया।<br />
रसटूल (स.अ.व.व.) के इस व्यवथिा का लाभ यह हुआ कि<br />
जब भी इस्ाम के मटूलों को जोखिम दर पेश हुए उनके सचे<br />
नमटूनों ने जान की बाजी लगाकर उनके मटूलों को नष्ट होने से<br />
बचाया। यह महज सं योग है या प्रकृ ति की व्यवथिा कि जब यज़ीद<br />
के द्ारा इस्ाम के मानव और नैतिक मटूलों को खतरा हुआ तो<br />
नवासए रसटूल (स.अ.व.व.) ने भी इसी रजब के महीने में मदीना से<br />
हिजरत फ़रमाई जिस महीने मकारेमुल अखलाक के पटूरा होने के<br />
लिए रसटूले अकरम (स.अ.व.व.) भेजे गए थे। इमाम हुसैन<br />
इमाम अली इब्े मूसा अल-रजा (अ.स.) ने फ़रमाया:<br />
r<br />
(अ.स.) ने २८ रजब को मदीना से हिजरत की, जिसका मतलब है<br />
कि इस हिजरत का मामला २७ रजब को प्रदान हो चुका था।<br />
बेसते पैग़म्बर (स.अ.व.व.) और क़यामे इमाम हुसैन (अ.स.)<br />
के मामलों की आपटूर्त का एक ताररख में जमा होना दिव्य प्रणाली<br />
का वह अछटू ता प्रबं धन है जो हुसैन (अ.स.) के लक्ष्य की थिापना<br />
को बेसत के उद्ेश्य से स्ततः जोड़ देता है। यानी अगर नाना नैतिक<br />
और मानवीय मटूलों की पटूर्त के लिए भेजा गया तो नवासे ने भी<br />
उन्ीं मटूलों की रक्षा के लिए मदीना से हिजरत की। जिसकी<br />
प्रतिबिंबिता आपने<br />
इन्नमा ख़रज्ो लेतलबिल् इस्ाहे फी उम्मते जद्ी<br />
सल्ल्ाहो अलयहे व आलेही ओरीदो अन् आमोर बिल्<br />
मअरूफे व अन्ा अनिल् मुन्करे व असीर बेसीरते जद्ी<br />
जैसे वाक्ों से की। इस तरह आप ने यह स्पष्ट कर दिया कि<br />
मेरे कयाम को बेसत के सं दर्भ में देखना चाहिए।<br />
जी हाँ! यही सं दर्भ था जो रसटूल (स.अ.व.व.) और इमाम<br />
हुसैन (अ.स.) से टकराने वाली शक्तियों में भी नजर आता है।<br />
वही शक्तियां जो बेसत से टकराई थीं वही शक्तियां इमाम हुसैन<br />
(अ.स.) से भी टकराई। पीढ़ी और चरित्र के सद्ाव के साथ। इस<br />
नुतिे की तरफ़ रसटूले अकरम (स.अ.व.व.) ने इस मुख्सर जुम्े<br />
ए शबीब के बेटे! यदि तुम चाहते हो कि तुम स्वर्ग में रसूले अकरम (स.अ.व.व.)<br />
और उनके अहलेबैत (अ.स.) के पडोस में महलोंमें रहो तो इमाम हुसैन (अ.स.)<br />
के हत्ारों पर श्ाप करो और अल्ाह से प्ाथ्रना करो कि वह उन अत्ाचारियों<br />
पर अपना सख्त अजाब नाहजि करे।
अक्टूबर २०१५ 11 जाफ़री अॉबज़रवर<br />
के ज़रीए इशारा किया था<br />
हुसैनुम् मिन्नी व अना मिन् हुसैनिन्<br />
यही कारण है कि नवासे ने मानव और नैतिक मटूलों की रक्षा<br />
में रति की आखिरी बटू ं द तक वह कारनामा किया जिसकी मिसाल<br />
रहती दुनिया तक नहीं मिल सकती। हुसैन (अ.स.) ने इस तरह<br />
नैतिकता की पटूरी तस्ीर कर्बला में प्रदान की जिसका न के वल<br />
प्रदर्शत बल्कि भीतर भी समानांतर और नरम था। इमाम हुसैन<br />
(अ.स.) के कयाम में पेश किए गए नैतिकता की विशेषता यह है<br />
कि पुरआशोब वातावरण में उनकी पटूण्र, सत् और व्यावहारिक<br />
तस्ीर पेश की गई जबकि उनके नैतिक गुणों को विभिन्न जातियों<br />
और विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले, विभिन्न लिंग और सन और वर्ष से<br />
सं बं ध रखने वालों ने मासटूम रणनीति के अनुसार सजाया। कर्बला<br />
की नैतिकता की एक और विशेषता यह है कि उनके नैतिक गुणों<br />
को प्रदान करने वाले फि़ क्रो अमल के आधार पर सं गत थे और<br />
उनमें से कोई भी सिद्धांत के दायरे से हरगिज़ कदम बाहर नहीं<br />
निकाला।<br />
इन गुणों की पृष्भटूमि में जब कर्बला पर निगाह पड़ती है तो<br />
सभी नैतिक गुण अपनी आबो तब के साथ जगमगाते नज़र आते<br />
हैं। बहादुरी, त्ाग और बलिदान, रियाज़त व इबादत, इताअत व<br />
बं दगी, सब्र व बुर्दबारी, जटूद व सखा, अधिकारों का भुगतान, हक़<br />
तलबी, पदनाम का पास व लेहाज़, वफ़ादारी, अत्ारार सतीज़ी<br />
जैसे न जाने कितने गुण सब के सब अपनी सही स्थिति में जलवा<br />
फ़िगन हैं । यहाँ एक विशेषता में सं लग्न होना दूसरे से अनजान होने<br />
का कारण नहीं बनता। यहाँ मैदाने जिहाद में रज़म का हंगामा हैं<br />
साथ ही साथ नमाज़ का समय आते ही जमात की सफ़बं दी है।<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) जितने बड़े बहादुर थे उतने ही दयालु,<br />
यहां बहादुरी का मतलब यह नहीं कि प्रतिद्ंद्ी को नेस्नाबटूद कर<br />
दिया जाए बल्कि यहां इमाम हुसैन (अ.स.) सुलह के सभी मागयों के<br />
बं द हो जाने के बाद बुज़दिलों की तरह अपने को तसलीम नहीं<br />
करते लेकिन अाज़ाद पुरुषों की तरह डटकर मुकाबला करते हैं<br />
लेकिन इस मुक़ाबले में भी घायलों पर हाथ नहीं उठाते। मैदाने<br />
कारज़ार में क्ा किसी ने ऐसा मुजाहिद देखा है जो अपने दुश्मन<br />
पर वार करे और वह घायल होकर गिर जाए तो घायल करने वाला<br />
खुद पटूछे कि मैं तेरी क्ा मदद कर सकता हूँ। उसने कहा, मैं उठने<br />
लायक नहीं तो मेरे भाई को आवाज़ दें कि मुझे आकर ले जाए।<br />
मैदान कारज़ार में इमाम हुसैन (अ.स.) ने पीछे हटे हुए दुश्मन पर<br />
वार न करके अपने भाई को आवाज़ दी और जब तक वह न आया<br />
आपने उसे उठाकर सं भाले रखा। क्ा दुनिया ने ऐसा शुजा भी<br />
देखा है?<br />
दुश्मन की पटूरी सेना को प्ास की शिद्दत में देखकर अपना पटूरा<br />
पानी न के वल उन्ें बल्कि जानवरों तक को पिला देना वास्व में<br />
अखलाक का बहुत अछटू ता नमटूना है लेकिन इमाम हुसैन (अ.स.)<br />
के अखलाक की यह विशेषता मुझे उस समय बहुत महान दिखाई<br />
देती है जब इमाम हुसैन (अ.स.) उन्ीं सैनिकों के हाथों प्ास की<br />
तीव्रता से पीकड़त होते हैं और प्ासे बचे को लेकर उन्ीं से मांग<br />
करते हैं लेकिन इतिहास ने नहींलिखा कि यहाँ इमाम हुसैन (अ.स.)<br />
ने एहसान जताया हो कि मैं आप में से बहुतों को पानी पिलाया था<br />
इसलिए अब कम से कम मेरे बचे की ही प्ास बुझा दो। उनके<br />
दुश्मनों पर ज़जन्ोंने सभी मानव और नैतिक सिद्धांतों का हनन कर<br />
दिया हो एहसान करके एहसान न जताना वह ऊं चाई भटूमिका है<br />
इमाम जाफ़र सादिक़ इब् मोहम्मद अलसादिक (अ.स.) ने फरमाया:<br />
r<br />
‘हमारे मानने वाले आपस में एक दू सरे से प्ार और दया से पेश आते हैं जब<br />
वे अके ले होते हैं या जब एक निजी सभा में बैठते हैं वह अल्ाह को याद करते<br />
हैं बेशक हमें याद करना अल्ाह को याद करना है और जब कोई हमारे<br />
दुश्मनों को याद करता है वह शैतान को याद करता है। ’<br />
(अल-काफ़ी, जि. २, पृ. १८६)
जाफ़री अॉबज़रवर 12 अक्टूबर २०१५<br />
जिसकी मिसाल तारीखे इन्ातनयत में मिलना मुल्श्कल है।<br />
पदनाम का यह खयाल कि जब तक असहाब जीवित हैं अंसार<br />
को युद्ध के मैदान में न जाने दिया और इसी तरह अंसार ने भी<br />
पदनाम की हिफ़ाज़त का ध्ान रख कर अपनी जान कु र्बान की।<br />
कया मजाल कि छोटों के रहते कोई बड़ा युद्ध के मैदान में चला<br />
जाए। क्ा कभी ऐसा भी हुआ है कि वह दुश्मन का सरदार जिसकी<br />
वजह से कोई मनुष्य सभी कठिनाइयों का सामना करे मगर जब<br />
वही सरदार एहसासे अपराध के साथ आ जाए तो प्रतिद्ंद्ी के<br />
व्यवहार ने एहसास को इस तरह खत् कर दिया है कि जैसे कोई<br />
ग़लत काम ही न हुआ हो, यह बख्शिश व माफी कर्बला के सिवा<br />
कहां दिखाई देगी।<br />
लोगों को अज़ाबे इलाही से बचाने की ऐसी चिंता कि सभी<br />
मुसीबतों को झेलने के बाद दुश्मनों के लिए बददुआ न की और युद्ध<br />
की स्थिति में अगर दुश्मन की सेना से कोई पशेमान होकर आया<br />
और इमाम हुसैन (अ.स.) की मदद के लिए भी तैयार न हुआ तो<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) ने यह भी तनददेक्शत किया कि आप मैदाने<br />
कर्बला से इतने दूर चले जाओ कि जब मैं आवाज़े इस्ेगासा को<br />
बुलन् करूँ तो वह तुम्ारे कानों तक न पहुँच सके । इसलिए कि<br />
अगर मेरी आवाज़े इस्ेगासा सुनकर मदद न की तो तुम नरक के<br />
हक़दार बन जाओगे।<br />
अल्ाह अल्ाह युद्ध की स्थिति और यह हिदायत और<br />
मार्गदर्शन और पद का भुगतान।<br />
इमाम से बेतहाशा लगाव के बावजटूद दुश्मनों के ताने सुनकर<br />
तब तक कोई कदम न करना जब तक इमाम से अनुमति न मिल<br />
जाए। आथिा और आज्ापालन का यह सं योजन कहीं और नहीं<br />
दिखाई दे रहा है। यहाँ सही युद्ध में मानवाधिकारों का ऐसा मानना <br />
था कि उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। जब बशीर बिन अम्र को<br />
इमाम अली इब्े मूसा अल-रजा (अ.स.) ने फ़रमाया:<br />
r<br />
उनके पुत्र की गिरफ्ारी की खबर मिली तो इमाम हुसैन (अ.स.)<br />
ने उन्ें बुलाकर कहा कि जाओ और अपने बेटे की रिहाई की चिंता<br />
करो मगर बशीर ने इनकार कर दिया और इमाम (अ.स.) का साथ<br />
नहीं छोड़ा। इमाम (अ.स.) ने ऐसी स्थिति में भी उन्ें पांच कीमती<br />
कपड़े दिए और कहा कि अच्ा अगर तुम नहीं जाते तो अपने पुत्र<br />
मोहम्मद को भेज दो ताकि वह इन कपड़ों की कीमत से अपने भाई<br />
की रिहाई का सामान करे।<br />
ज़हाक मश्रकी ने इस शर्त पर इमाम हुसैन (अ.स.) से नुसरत<br />
की हामी भरी कि जब जरूरत पड़ी आपकी अनुमति से मैदान<br />
छोड़कर चला जाऊँ गा। इमाम (अ.स.) ने उनसे वादा किया कि<br />
जरूरत आने पर मैं तुम्ारी रुकावट न बनु ंगा। इस शर्त को कु बटूल<br />
करके जहां इमाम हुसैन (अ.स.) ने मानव अधिकार पर पहरे न<br />
बैठने दिए वहीं प्रत्ेक शतयों के आदमी को नेक काम करने का बढ़ा<br />
अवसर प्रदान किया।<br />
हुआ भी कु छ ऐसा कि रोज़े आशटूर दोपहर के बाद ज़हाक<br />
मश्रकी जिहाद में शरीक होकर कर्बला से चले जाते हैं और अदाए<br />
कर्ज़ को पसं द करते हैं। इससे जहां कर्तव्य को पहचान ने का सार<br />
उजागर होता है वहीं इमाम हुसैन (अ.स.) द्ारा किए गए वादे की<br />
निष्ा भी होती है।<br />
गरज़ कि इमाम हुसैन (अ.स.) ने नैतिक और मानवीय मटूलों<br />
का न के वल सं रक्षण किया बल्कि उसे समाज में इस तरह फै लाया<br />
जिससे हर देश और हर पीढ़ी अपनी नैतिक प्ास बुझाती रहेगी।<br />
बकौले शाएर<br />
चौदह सदियों से क्भखारी है ज़माना उसका<br />
फिर भी खाली नहीं होता है खज़ाना उसका<br />
(बशुक्रिया: हुसैनी टाइम्स, अवध नामा, लखनऊ)<br />
ए शबीब के बेटे! यदि तुम चाहते हैं कि स्वर्ग में हमारे साथ उच्च पद पर फ़ाइज<br />
हो तो हमारे दुखों के मौकों पर दुखी और सुख के मौकों पर खुश रहो। हमारे<br />
प्ार में समर्पित रहे। क्यो ंकि अगर कोई व्यक्ति किसी पत्थर से भी प्ार करेगा<br />
तो अल्ाह तआला क़ियामत के दिन उसके साथ उसे शुमार करेगा।
अक्टूबर २०१५ 13 जाफ़री अॉबज़रवर<br />
अक़ीदा<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) का ग़म मनाना अक़ीदे का<br />
क़ु िरती नतीजा है<br />
जब कभी कोई गंभीर व्यक्ति उन मुसीबतों के बारे में सोचता<br />
है जो रसटूले अकरम (स.अ.व.व.) और उनके अहलेबैत (अ.स.)<br />
ने सहन कीं उसका दिल उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता<br />
और उसकी आंखों से आंसटू बहने लगते हैं। आंसटूओं से भरी आंखों<br />
पर अल्ाह अपनी रहमतें नाज़िल करता है और वह अपने उन<br />
बं दों को अधिक सम्मानित करता है।<br />
जैसा कि जब कोई व्यक्ति पापों से किनाराकशी इख्ेयार<br />
करता है और दुनिया की ख्ाकहशों से अपने दिल को पाक करके<br />
अल्ाह से मदद का अनुरोध करता है और उसके चुने हुए बं दों<br />
(मुहम्मद व आले मोहम्मद (अ.स.)) का उल्ेख करता है तो दिल<br />
और अधिक विनम्र होकर तौफ़ीकात स्ीकार करने में सक्षम हो<br />
जाता है और उसकी आँखें और अधिक आंसटूओं से भरने लगती<br />
हैं।<br />
अल्ाह की निकटता प्राप्त करने का सबसे अच्ा रस्ा है कि<br />
उन अवसरों पर खुश हो जब अहलेबैत (अ.स.) खुश होते हैं और<br />
उन अवसरों पर दुखी रहे जब वह दुखी होते हैं।<br />
इमाम जाफ़र साकदक़ इब् मोहम्मद अलसादिक (अ.स.) ने<br />
फरमाया:<br />
‘हमारे मानने वाले आपस में एक दूसरे से प्ार और दया<br />
इमाम अली इब्े मूसा अल-रजा (अ.स.) ने फ़रमाया:<br />
r<br />
से पेश आते हैं जब वे अके ले होते हैं या जब एक निजी<br />
सभा में बैठते हैं वह अल्ाह को याद करते हैं बेशक हमें<br />
याद करना अल्ाह को याद करना है और जब कोई<br />
हमारे दुश्मनों को याद करता है वह शैतान को याद करता<br />
है। ’<br />
(अल-काफ़ी, जि. २, पृ. १८६)<br />
इसलिए अल्ाह के मुन्तखब बं दे और नाएबों की खुसटूसियतें,<br />
बातें, काययों, उनके जन्म और शहादत के मौकों पर उन्ें याद करना<br />
अल्ाह को याद करना और इबादत है।<br />
अहलेबैत (अ.स.) की मुसीबतों खास कर इमाम हुसैन<br />
(अ.स.) की मुसीबतों को याद करने के सवाब और लाभ के बारे में<br />
कई हदीसें नकल की गई हैं, लेकिन यहाँ हम के वल दो हदीसों का<br />
उल्ेख करेंगे:<br />
रय्यान इब्े शबीब से रिवायत है कि इमाम अली इब्े मटूसा अल-<br />
रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया:<br />
‘ए शबीब के बेटे! मुहर्रम वह महीना है जब जाहिलियत के<br />
दिनों के युग के लोग भी इस महीने की पवित्रता में ज़ुल्म<br />
व खटून बहाने से परहेज़ करते थे। मगर इस कौम ने न तो<br />
इस महीने की पवित्रता का ही कोई ध्ान रखा और न ही<br />
उन्ोंने अपने नबी की इज़्ज़त और पवित्रता का कोई<br />
ए शबीब के बेटे! जब तुम इमाम हुसैन (अ.स.) की मुसीबतों पर गिरया करोगे<br />
और तुम्ारे आंसू तुम्ारे गाल पर बह आएं गे अल्ाह तुम्ारे सारे छोटे बडे<br />
गुनाहों को माफ़ कर देगा चाहे संख्ा में कितने भी हो।
जाफ़री अॉबज़रवर 14 अक्टूबर २०१५<br />
विचार किया। इस महीने में उन्ोंने अपने रसटूल की ऑल<br />
की हत्ा की, उनकी महिलाओं को कै द किया और उनके<br />
माल असबाब को लटूटा। अल्ाह कभी भी उनके अपराधों<br />
को माफ़ नहीं करेगा।<br />
ए शबीब के बेटे! यदि किसी भी बात पर या किसी पर रोना<br />
चाहते हो तो हुसैन इब्े अली (अ.स.) पर गिर्या करो<br />
क्ोंकि उन्ें एक भेड़ की तरह मार दिया गया। उनके<br />
साथ उनके परिवार की अठ्ारह हस्तियां जिनके इस<br />
ब्रहांड में कोई उदाहरण नहीं था उन्ीं के साथ हत्ा कर<br />
दिए गए। दरअसल इमाम हुसैन (अ.स.) के शोक में सात<br />
आकाश और पृथ्ी रोए। चार हज़ार फ़रिश्ते पृथ्ी पर<br />
उनकी मदद के लिए नाज़िल हुए थे लेकिन जब वे आए<br />
तब इमाम (अ.स.) शहीद हो चुके थे इसलिए वह उनकी<br />
कब्रे मुबारक पर रह गए, तितर बितर और व्यथित तब<br />
तक वहीं मौजटूद रहेंगे जब तक अल क़ाइम (इमाम मेहदी<br />
(अ.ज.)) उपस्थिति नहीं होगें जब वे उनकी नुसरत करेंगे<br />
और उनका नारा होगा। ‘इमाम हुसैन (अ.स.) के खटून का<br />
बदला।’<br />
ए शबीब के बेटे! जब तुम इमाम हुसैन (अ.स.) की<br />
मुसीबतों पर गिरया करोगे और तुम्ारे आंसटू तुम्ारे गाल<br />
पर बह आएं गे अल्ाह तुम्ारे सारे छोटे बड़े गुनाहों को<br />
माफ़ कर देगा चाहे सं ख्या में कितने भी हो।<br />
ए शबीब के बेटे यदि तुम चाहते हो कि तुम अपने पापों से<br />
मुति होकर अल्ाह तआला से क़यामत में मुलाकात<br />
करो तो इमाम हुसैन (अ.स.) के रौज़े की ज़ियारत बजा<br />
लाओ।<br />
ए शबीब के बेटे! यदि तुम चाहते हो कि तुम स्ग्र में रसटूले<br />
अकरम (स.अ.व.व.) और उनके अहलेबैत (अ.स.) के<br />
इमाम अली इब्े मूसा अल-रजा (अ.स.) ने फ़रमाया:<br />
r<br />
पड़ोस में महलों में रहो तो इमाम हुसैन (अ.स.) के हत्ारों<br />
पर श्राप करो और अल्ाह से प्रार्थना करो कि वह उन<br />
अत्ारारियों पर अपना सख् अज़ाब नाज़िल करे।<br />
ए शबीब के बेटे! यदि तुम चाहते हैं कि तुम्ें वह इनाम<br />
मिले जो उन्ें मिला है जो इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ<br />
शहीद हुए तो जब कभी भी उन्ें याद करो तो कहो: काश<br />
मैं भी उनके साथ कर्बला में होता तो यह महान सफलता<br />
प्राप्त करता।<br />
ए शबीब के बेटे! यदि तुम चाहते हैं कि स्ग्र में हमारे साथ<br />
उच पद पर फ़ाइज़ हो तो हमारे दुखों के मौकों पर दुखी<br />
और सुख के मौकों पर खुश रहो। हमारे प्ार में समर्पत<br />
रहे क्ोंकि अगर कोई व्यक्ति किसी पत्थर से भी प्ार<br />
करेगा तो अल्ाह तआला कक़यामत के दिन उसके साथ<br />
उसे शुमार करेगा।<br />
(ओयटून अखबार अलरज़ा, जि. 1, पृ. २९९)<br />
मसमअ इब्े अब्ुल मलिक से रिवायत है कि इमाम जाफ़र इब्े<br />
मोहम्मद अलसादिक (अ.स.) ने मुझसे पटूछा: ‘क्ा तुम जानते हो<br />
कि इमाम हुसैन (अ.स.) के साथ क्ा घटना घटी?’ मैंने जवाब<br />
दिया कि हाँ मैं जानता हूँ। फिर इमाम (अ.स.) ने पटूछा: ‘क्ा तुम<br />
दुखी हुए थे?’ मैंने कहा हाँ। खुदा की क़सम मैंने इतने आंसटू बहाए<br />
कि मेरे घर वालों ने उसका प्रभाव मेरे चेहरे पर देखा और उसी<br />
स्थिति में कई दिनों तक खाना भी नहीं खा सका।<br />
इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया:<br />
‘अल्ाह तुम्ारे आंसटूओं पर रहम करे वास्व में तुम्ारी<br />
गिनती उन लोगों में है जिन्ें हमारी अनुभटूति प्राप्त है जो<br />
हमारे सुख में खटूश हुए हैं और हमारे दुखों में दुखी होते हैं।<br />
निसं देह तुम अपनी मौत के समय हमारे पटूव्रजों को मौजटूद<br />
पाओगे और वह मलकु ल मौत से सिफारिश करेंगे तो वह<br />
बाकी सफह न. १८ पर<br />
ए शबीब के बेटे! जब तुम इमाम हुसैन (अ.स.) की मुसीबतों पर गिरया करोगे<br />
और तुम्ारे आंसू तुम्ारे गाल पर बह आएं गे अल्ाह तुम्ारे सारे छोटे बडे<br />
गुनाहों को माफ़ कर देगा चाहे संख्ा में कितने भी हो।
अक्टूबर २०१५ 15 जाफ़री अॉबज़रवर<br />
ताकीबात<br />
सूरों की विशेषताएं<br />
सूरह अल-क़ारेअह<br />
(१) किताब खवास्ुल क़ु आ्रन में है की रसटूले अकरम<br />
(स.अ.व.व.) ने इरशाद फ़रमायातः<br />
जो व्यक्ति सटूरह अल-क़ारेअह की तिलावत पाबन्ी<br />
से करता है तो क़यामत के दिन उसकी नेकीयों का<br />
पल्ा मीज़ान पर अल्ाह तआला के हुक्म से भारी<br />
हो जाएगा। और अगर कोई इस सटूरह को लिख कर<br />
अपने क़बज़े की चीज़ों पर लटका दे तो अल्ाह<br />
तआला उसकी और उसके परिवार वालों की ग़ुरबत<br />
और परेशानीयों को दूर कर देता है और उसकी रोज़ी<br />
में बरकत अता करता है।<br />
(२) इब्े बाब्वयह ने इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) से<br />
रिवायत की है कि आप (अ.स.) ने इरशाद फ़रमायातः<br />
जो व्यक्ति सटूरह अल-क़ारेअह की तिलावत कसरत<br />
से करता है तो अल्ाह तआला उसे दज्जाल की<br />
शरारत से बचाएगा और क़यामत के दिन उसे जहन्म<br />
के अज़ाब से सुरक्क्षत रखेगा।<br />
(३) इमाम जाफ़र सादिक (अ.स.) ने इरशाद फ़रमायातः<br />
अगर किसी व्यक्यि के व्यापार में घाटा हुआ हो और<br />
उसका सामान न बिक पा रहा हो तो वह सटूरह अल-<br />
क़ारेअह को लिख कर अपने गले में पहन ले तो<br />
अल्ाह तआला के हुक्म से उसका व्यापार ख़ूब बढ़ेगा<br />
और उसका सामान भी ख़ूब बिकने लगेगा। और<br />
अगर कोई इस सटूरह की तिलावत पाबन्ी से करे तो<br />
अल्ाह ताला उसकी रोज़ी में बरकत अता करेगा<br />
और उस कमाई के साधन निकाल देगा।<br />
सूरह तकासुर<br />
(१) किताब खवास्ुल क़ु आ्रन में है की रसटूले अकरम<br />
(स.अ.व.व.) ने इरशाद फ़रमायातः<br />
जो व्यक्ति सटूरह तकासुर की तिलावत खुलटूस से करेगा<br />
तो अल्ाह तआला उस से नेअमतों के बारे में सवाल<br />
नहीं करेगा जो इस दुनिया में उसके पास थीं। अगर<br />
कोई सटूरह तकासुर की तिलावत उस समय करे जब<br />
वर्षा हो रही हो तो उस की तिलावत खत् होने से<br />
पहले अल्ाह तआला उसके गुनाहों को माफ़ कर<br />
देगा। और जब कोई सटूरह तकासुर की तिलावत<br />
करता है तो आसमान में एक आवाज़ गटू ंजती है जो<br />
कहती हैतः<br />
कौन है जो इस व्यक्ति के समान अल्ाह तआला का<br />
शुक्र अदा करे।<br />
(२) इब्े बाब्वयह ने इमाम जाफ़रे साकदक़ (अ.स.) से<br />
रिवायत की है कि आप (अ.स.) ने इरशाद फ़रमायातः<br />
जो व्यक्ति सटूरह तकासुर की तिलावत अपनी वाजिब<br />
नमाज़ों में करता है तो अल्ाह तआला उसे एक सौ<br />
शहीदों का सवाब अता फ़रमाएगा और अगर अपनी<br />
मुस्हब नमाज़ों में करे तो उसे पचास शहीदों का<br />
सवाब मिलता है और वाजिब नमाज़ में पढ़ने पर<br />
मलाएका की चालीस क़तारे उसके साथ नमाज़ पढ़ती<br />
है।<br />
(३) आप (अ.स.) ने यह भी इरशाद फ़रमायातः<br />
जो व्यक्ति सोने से पहले सटूरह तकासुर की तिलावत<br />
करे तो वह सारी रात सुरक्क्षत रहेगा और जो व्यक्ति<br />
बाकी सफह न. १८ पर
जाफ़री अॉबज़रवर 16 अक्टूबर २०१५<br />
अहकाम<br />
आयतुल्ाह सैय्यद अली हुसैनी सीसतानी, माख़ूज़ अज़ ‘नामहरम मर्द और औरत के अहकाम’<br />
सवाल - जवाब<br />
स. कभी ऐसा देखने में आता है कि कु छ जवान आंतरिक<br />
कपडों को काफी समझ लेते हैं या वे कपडे, कालीन या<br />
मोटरकार आदि धोने के समय पैर खोलते हैं क्ा इस<br />
मामले में नामहरम उनकी ओर देख सकती है या नहीं?<br />
ज. हराम में मुब्ब्तला होने का डर हो या शहवत की दृष्टि से देखे<br />
तो जाएज़ नहीं है। बल्कि एहतियाते लाज़िम यह है कि<br />
उसके बदन के उन कहस्ों को भी न देखे, जिन्ें आमतौर<br />
पर छु पाया नहींजाता चाहे हराम में मुब्ब्तला होने का डर न<br />
हो और शहवत की दृष्टि से न देखे।<br />
स. बच्चे की माँ कितनी उम्र तक उसकी शर्मगाह को देख<br />
सकती है?<br />
ज. जब तक बचा अच्े-बुरे में भेद न कर पाए तब तक देख<br />
सकती है और जब वह अच्े-बुरे में भेद करने लगे तो<br />
एहतियाते वाजिब यह है कि शर्मगाह को न देखे।<br />
स. क्ा पिता के लिए अपने बेटों की शर्मगाह को देखना<br />
उचित है?<br />
ज. पिता के लिए बालिग़ लड़कों की शर्मगाह को देखना उचित<br />
नहीं है (चाहे वह हम्माम में हों या कहीं और) हाँ अच्े बुरे<br />
की तमीज़ रखने वाले लड़के की शर्मगाह को देखने की<br />
मनाई एहतियाते वाजिब की बिना पर है।<br />
स. अजनबी पुरुषों की सगाई के क्रम में किसी अजनबी<br />
औरत को इस तरह देखने का क्ा हुक्म है कि वह किसी<br />
मेहरम के साथ उस औरत के साथ बैठे और पसं द न आने<br />
की स्थिति में उससे सगाई न करे?<br />
ज. जो व्यक्ति किसी औरत से शादी करना चाहता है वह<br />
उसके महासिन, चेहरे, बाल और कलाई आदि को देख<br />
सकता है।<br />
स. क्ा देखने में उसकी अनुमति शर्त है?<br />
ज. देखने में उसकी इच्ा और अनुमति की शर्त नहीं है हाँ यह<br />
शर्त है कि शेहवत की नज़र से न देखे चाहे वह यह जानता<br />
हो कि उसकी ओर देखने से कहरी रूप से सुख ले रहा है<br />
लेकिन हराम में मुब्ब्तला होने की आशं का नहीं है। यह भी<br />
शर्त है कि जब उस से शादी करने में कोई रुकावट न हो<br />
जैसे इद्ा या पत्ी की बहन हो। साथ ही यह शर्त है कि उसे<br />
उसके हाल पर छोड़ नहींदिया गया हो लेकिन यह सं भावना<br />
है कि वह स्तंत्र है अन्रा जाएज़ नहीं है और एहतियात<br />
वाजिब यह है कि उसी को देखे जिससे शादी करने का<br />
इरादा है।<br />
स. जो व्यक्ति शादी करना चाहता है क्ा वह इस हेतु से<br />
किसी भी औरत को देख सकता है?<br />
ज. शादी का इरादा रखने वाला कई महिलाओं को देख कर<br />
उनमें से किसी एक का चयन नहीं कर सकता।<br />
स. क्ा उपलिखित स्थिति में फिर से देख सकता है?<br />
ज. यदि पहली बार देखने से जानकारी प्राप्त नहीं हुई हों तो<br />
फिर से देख सकता है।<br />
स. जो व्यक्ति शादी करना चाहता है क्ा उसके लिए यह<br />
वैध है कि वे विभिन्न बैठकों में कई महिलाओं को देखने<br />
और उनमें से एक का चयन करना चाहिए?<br />
ज. जाएज़ नहीं है।<br />
स. क्ा पुरुष फोटो में उस अजनबी औरत को देख सकता है<br />
जो तस्ीर में नाबालिग है और पटूरा पर्दा किए हुए नहीं है<br />
हालांकि अब वह बालिग हो चुकी है और अपने परदे का<br />
ध्ान रखती है?<br />
ज. अगर उसकी तस्ीर मौजटूदा स्थिति को दर्शाती है तो<br />
एहतियात यह है कि जाएज़ नहीं है।<br />
स. अजनबी महिला की तस्ीर देखने का क्ा हुक्म है?<br />
बाकी सफह न. ८ पर
अक्टूबर २०१५ 17 जाफ़री अॉबज़रवर<br />
माहे मोहर्रम<br />
हर महीने का तअललुक़ अललाह तआला से है<br />
येह महीना अहले बैत (अ.स.) और उनके क्शयों के लिए गम<br />
का महीना है यही वोह महीना है जब इमाम हुसैन (अ.स.) की<br />
शहादत ने यज़ीद जैसे ज़ालिम और जाबिर, फासिक और फाजिर<br />
के मु ं ह से इस्ामी मुखौटा नोच करके सचे इस्ाम और अद्ल का<br />
झं डा कायम किया। इमाम हुसैन (अ.स.) ने अपने चहरे पर गाज़े<br />
शहादत यटू ँ मला के खुदा की वहदानियत को कभी न मिटने वाली<br />
नटूरानियात का महवर और मरकज़ बना दिया। खुदा पर हमारे<br />
यकीन की पुख्गी दर असल करबला की देन है।<br />
आमाले माहे मोहर्रम<br />
पहली मोहर्रम की शब की बहुत अहमियत है। इस शब दो<br />
रकअत नमाज़ पढे जिस की हर रकअत में सटूरह अल-हदि के बाद<br />
ग्यारह मर्तबा सटूरह तौहीद पढ़े। रवायत में है के जनाबे रसटूले खुदा<br />
(स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि जो शखस इस शब दो रकअत नमाज़<br />
पढ़े और उसकी सुबह में जो साल का पहला दिन है रोज़ा रखे तो<br />
वोह शखस उस शखस के जैसा होगा के जो पटूरा साल अच्े आमाल<br />
करता रहा हो और वोह शखस उस साल महरटू ज़ रहेगा और अगर<br />
वोह मर जाए तो जन्त में जाएगा।<br />
इमाम रज़ा (अ.स.) से रवायत है के आप ने फ़रमाया के जो<br />
शखस आज के दिन रोज़ा रखे और फिर खुदा से कोई चीज़ तलब<br />
करे तो खुदावंदे आलम उसकी दुआ को कबटूल फ़रमाएगा।<br />
शबे आशूर<br />
इमाम जाफ़र साकदक़ (अ.स.) से मन्कू ल है के शबे आशटूर<br />
िज़यारते इमाम हुसैन (अ.स.) बजा लाए। इस शब बेदारी करे और<br />
इबादत और रोने में बसर करे इसलिए कि इस रात को मैदाने<br />
करबला में इमाम हुसैन (अ.स.) कु फ्ार के नरगे में घिरे हुए रात<br />
भर बेदार रहे।<br />
शबे आशटूर चार रकअत नमाज़ दो सलाम से पढ़े। पहली<br />
रकअत में बाद अल-हदि दस बार आयतुल कु रसी और दूसरी<br />
रकअत में अल-हदि के बाद दस बार सटूरह तौहीद। तीसरी रकअत<br />
में अल-हदि के बाद दस बार सटूरह कु ल अउज़ो बे रब्बील फ़लक़<br />
और चौथी रकअत में सटूरह अल-हदि के बाद दस बार सटूरह कु ल<br />
अउज़ो बेरब्बीन नास पढ़े और सलाम के बाद सौ (१००) बार सटूरह<br />
तौहीद पढ़े। इस नमाज़ के बाद अल्ाह तआला का िज़क्र और<br />
सलवात मोहम्मद व आले मोहम्मद पर बहुत पढ़े।<br />
आशूर का दिन<br />
इमाम हुसैन (अ.स.) की शहादत का दिन है और इमाम अली<br />
(अ.स.) के क्शओं के लिए मुसीबत और गम का दिन है। आज के<br />
दिन दुनिया के कामों में मश्गूल न हों। इमाम रज़ा (अ.स.) से<br />
रवायत है के जो शखस रोज़े आशटूरा अपने दुनयवी कामों को तर्क<br />
करे तो खुदावंदे तआला उसकी दुनिया और आखेरत की हाजतों<br />
को पटूरा करेगा। और जो शखस रोज़े आशटूरा को बरकत का दिन<br />
समझेगा और दुनयावी कामों में मश्गूल होगा तो खु ़ दा उसको<br />
कयामत के दिन यज़ीद, इब्े ज्यिद और उमरे सअद के साथ शामिल<br />
करेगा। उसके लिए लाज़म है के पटूरा दिन रोये और मातम और<br />
मजलिस में गुज़ारे। और आज के दिन आमाले आशटूरा करे और<br />
िज़यारते इमाम हुसैन (अ.स.) और दुआए अलकमा पढे। (जिसका<br />
िज़क्र तोहफतुल अवाम और मफातीहुल जिनान में है) और जितना<br />
ज़ादा मुम्कन हो सके इमाम हुसैन (अ.स.) के कातिलों पर लानत<br />
करे।<br />
अल्ाहुम्मल-अन कतलत अहले बैते रसटूलल्ाहे
जाफ़री अॉबज़रवर 18 अक्टूबर २०१५<br />
सल्ल्ाहो अलैहे व आलेही।<br />
दस्ीं मोहर्रम को रोज़ा रखना मकरूह है।<br />
(तौज़ीहुल मसाएल, म. नं. १७५६)<br />
रोज़े आशटूरा असर तक न कु छ खाए न पिए बल्कि फ़ाका करे।<br />
इस महिने की अहम तारीखें<br />
(२) इमाम हुसैन (अ.स.) सन. ६१ हीजरी में अपने साथीयों के<br />
साथ करबला पहुँचे।<br />
(७) इमाम हुसैन (अ.स.) और उन के साथियों पर करबला मे<br />
सफह नं. १४ का बाकी<br />
किसी दयालु माँ से अधिक तुम से प्ार से पेश आएगा<br />
और हमारे क्शयों में जो भी हमारे दुख में रोता है उन<br />
मुसीबतों में जो हम पर पड़ी तो इससे पहले कि उसके<br />
आंसटू निकले अल्ाह उस पर दया प्रकट करता है और<br />
इस प्रक्रिया का इतना ज़ादा सवाब है कि अगर उसका<br />
वह आँसटू जो उसके गाल पर बह कर आता है वह अगर<br />
जहन्ुम में गिर जाए तो उसकी आग बुझ जाएगी।<br />
(कामेलुज़ ज़ियारात, पृ. १०१, हदीस ६, बिहारुल अनवार, जि. ४४, पृ. २८८)<br />
पानी बं द हुआ।<br />
(१०) रोज़े आशटूरा इमाम हुसैन (अ.स.) और उन के साथी सन<br />
६१ हिजरी में शहीद हुए।<br />
(१७) अब्रहा के लशकर ने खाने काबा पर हमला किया और येह<br />
साल आमुल फील कहलाया।<br />
(१८) सन. ६ हिजरी मे किबला तब्ील हुआ।<br />
(२५) शहादते इमाम जैनुल आबेदीन (अ.स.) सन. ९४-९५<br />
हिजरी<br />
सफह नं. १५ का बाकी<br />
अपनी चिन्ताओं और परेशानीयों से छु टकारा पाना<br />
चाहता हो वह सुरह तकासुर की तिलावत करे। और<br />
जो अस्र के समय इस सटूरह की तिलावत करता है उसे<br />
अल्ाह तआला दूसरे दिन सटूरज के डटूबने तक उसकी<br />
रक्षा करता है।<br />
सफह नं. ९ का बाकी<br />
(अ.स.) का कामयाबी का बबानगे दोहल ऐलान कर रहे हैं। यज़ीद<br />
कामयाब होता तो उस की कामयाबी के असरात होते लेकिन आज<br />
न उस की क़ब्र का निशान है न उस के ज़ायरीन हैं, न कोई उस का<br />
नाम लेवा है, न उस की बारगाह है, न उस की तज़किरा है, न उस<br />
की राह में फ़िदाकारी है, न उस की परचम है, न उस का कोई नाम<br />
व निशान है और अगर कोई नाम है तो वह दाखखले दुशनाम है।<br />
लेकिन इमाम हुसैन (अ.स.) आज भी हर जेहत से फ़ातेह<br />
और कामयाब हैं, हर मुहर्रम उन की फ़तह का ऐलान करता है। हर<br />
घर में उन का अज़ाखाना सजाया जाता है। हर शाहराह पर उन का<br />
परचम लहराता है। हर बज़म में उन का तज़किरा होता है। हर प्ासे<br />
को पानी उन ही के नाम पर पिलाया जाता है। हर क़ानटूने इलाही<br />
और तालीमें इस्ाम का चर्चा उन्ी की मजालिस में होता है। हर<br />
अखबार उन ही तज़किरा करता है। हर रिसाला उन ही का नंबर<br />
निकालता है। हर मुसलमान उन ही को खखराजे अक़ीदत पेश करता<br />
है। हर शरीफ़ ग़ैर मुस्लिम उन ही की बारगाह में सरे नियाज़ झुकाता<br />
है। हर मुवर्रख उन ही को तारीख साज़ क़रार देता है। हर मुफ़तक्र<br />
उन ही के फ़लसफ़ ए जिहाद को अपनाता है। हर अदीब उन ही को<br />
सब्र व इस्स्क़लाल की अलामत क़रार देता है। हर इंक़े लाबी उन<br />
ही को रहबर तसलीम करता है। हर मोमिन उन ही को अपना<br />
सरदार तसलीम करता है। हर हक उन ही के गिर्द रक्र लगाता है।<br />
हर बातिल उन ही के नाम से घबराता है। हर सिपाही को उन ही से<br />
जिहाद का हौसला मिलता है और हर निहत्थे इंसान के लिये उन ही<br />
की दास्ाने इस्स्क़लाल हथियार का काम करती है।<br />
ग़रज़ इमाम हुसैन (अ.स.) ग़रीबों का सहारा, इस्ाम का<br />
अज़मे जावेदान, मुजाहिदों की ताक़त, शरीयत के पासबाँ और<br />
मुहम्मदियत के अबदी निगराँ हैं। इसी लिये इमाम हुसैन (अ.स.)<br />
को खखराजे अक़ीदत पेश करते हुए ख़ाजा मुईनुद्ीन चिश्ती<br />
अजमेरी हिन्ी फ़रमाते हैं:<br />
शाह अस् हुसैन बादशाह अस् हुसैन<br />
दीं अस् हुसैन दीं पनाह अस् हुसैन<br />
सर दाद न दाद दस् दर दस्े यज़ीद<br />
हक़्ा के बेना ए ला इलाह अस् हुसैन