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oct2015 hindi (1)

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जाफ़री अॉबज़रवर 12 अक्टूबर २०१५<br />

जिसकी मिसाल तारीखे इन्ातनयत में मिलना मुल्श्कल है।<br />

पदनाम का यह खयाल कि जब तक असहाब जीवित हैं अंसार<br />

को युद्ध के मैदान में न जाने दिया और इसी तरह अंसार ने भी<br />

पदनाम की हिफ़ाज़त का ध्ान रख कर अपनी जान कु र्बान की।<br />

कया मजाल कि छोटों के रहते कोई बड़ा युद्ध के मैदान में चला<br />

जाए। क्ा कभी ऐसा भी हुआ है कि वह दुश्मन का सरदार जिसकी<br />

वजह से कोई मनुष्य सभी कठिनाइयों का सामना करे मगर जब<br />

वही सरदार एहसासे अपराध के साथ आ जाए तो प्रतिद्ंद्ी के<br />

व्यवहार ने एहसास को इस तरह खत् कर दिया है कि जैसे कोई<br />

ग़लत काम ही न हुआ हो, यह बख्शिश व माफी कर्बला के सिवा<br />

कहां दिखाई देगी।<br />

लोगों को अज़ाबे इलाही से बचाने की ऐसी चिंता कि सभी<br />

मुसीबतों को झेलने के बाद दुश्मनों के लिए बददुआ न की और युद्ध<br />

की स्थिति में अगर दुश्मन की सेना से कोई पशेमान होकर आया<br />

और इमाम हुसैन (अ.स.) की मदद के लिए भी तैयार न हुआ तो<br />

इमाम हुसैन (अ.स.) ने यह भी तनददेक्शत किया कि आप मैदाने<br />

कर्बला से इतने दूर चले जाओ कि जब मैं आवाज़े इस्ेगासा को<br />

बुलन् करूँ तो वह तुम्ारे कानों तक न पहुँच सके । इसलिए कि<br />

अगर मेरी आवाज़े इस्ेगासा सुनकर मदद न की तो तुम नरक के<br />

हक़दार बन जाओगे।<br />

अल्ाह अल्ाह युद्ध की स्थिति और यह हिदायत और<br />

मार्गदर्शन और पद का भुगतान।<br />

इमाम से बेतहाशा लगाव के बावजटूद दुश्मनों के ताने सुनकर<br />

तब तक कोई कदम न करना जब तक इमाम से अनुमति न मिल<br />

जाए। आथिा और आज्ापालन का यह सं योजन कहीं और नहीं<br />

दिखाई दे रहा है। यहाँ सही युद्ध में मानवाधिकारों का ऐसा मानना ​<br />

था कि उसकी दूसरी मिसाल नहीं मिलेगी। जब बशीर बिन अम्र को<br />

इमाम अली इब्े मूसा अल-रजा (अ.स.) ने फ़रमाया:<br />

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उनके पुत्र की गिरफ्ारी की खबर मिली तो इमाम हुसैन (अ.स.)<br />

ने उन्ें बुलाकर कहा कि जाओ और अपने बेटे की रिहाई की चिंता<br />

करो मगर बशीर ने इनकार कर दिया और इमाम (अ.स.) का साथ<br />

नहीं छोड़ा। इमाम (अ.स.) ने ऐसी स्थिति में भी उन्ें पांच कीमती<br />

कपड़े दिए और कहा कि अच्ा अगर तुम नहीं जाते तो अपने पुत्र<br />

मोहम्मद को भेज दो ताकि वह इन कपड़ों की कीमत से अपने भाई<br />

की रिहाई का सामान करे।<br />

ज़हाक मश्रकी ने इस शर्त पर इमाम हुसैन (अ.स.) से नुसरत<br />

की हामी भरी कि जब जरूरत पड़ी आपकी अनुमति से मैदान<br />

छोड़कर चला जाऊँ गा। इमाम (अ.स.) ने उनसे वादा किया कि<br />

जरूरत आने पर मैं तुम्ारी रुकावट न बनु ंगा। इस शर्त को कु बटूल<br />

करके जहां इमाम हुसैन (अ.स.) ने मानव अधिकार पर पहरे न<br />

बैठने दिए वहीं प्रत्ेक शतयों के आदमी को नेक काम करने का बढ़ा<br />

अवसर प्रदान किया।<br />

हुआ भी कु छ ऐसा कि रोज़े आशटूर दोपहर के बाद ज़हाक<br />

मश्रकी जिहाद में शरीक होकर कर्बला से चले जाते हैं और अदाए<br />

कर्ज़ को पसं द करते हैं। इससे जहां कर्तव्य को पहचान ने का सार<br />

उजागर होता है वहीं इमाम हुसैन (अ.स.) द्ारा किए गए वादे की<br />

निष्ा भी होती है।<br />

गरज़ कि इमाम हुसैन (अ.स.) ने नैतिक और मानवीय मटूलों<br />

का न के वल सं रक्षण किया बल्कि उसे समाज में इस तरह फै लाया<br />

जिससे हर देश और हर पीढ़ी अपनी नैतिक प्ास बुझाती रहेगी।<br />

बकौले शाएर<br />

चौदह सदियों से क्भखारी है ज़माना उसका<br />

फिर भी खाली नहीं होता है खज़ाना उसका<br />

(बशुक्रिया: हुसैनी टाइम्स, अवध नामा, लखनऊ)<br />

ए शबीब के बेटे! यदि तुम चाहते हैं कि स्वर्ग में हमारे साथ उच्च पद पर फ़ाइज<br />

हो तो हमारे दुखों के मौकों पर दुखी और सुख के मौकों पर खुश रहो। हमारे<br />

प्ार में समर्पित रहे। क्यो ंकि अगर कोई व्यक्ति किसी पत्थर से भी प्ार करेगा<br />

तो अल्ाह तआला क़ियामत के दिन उसके साथ उसे शुमार करेगा।

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